
लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पर प्रतिबंध: मीडिया की स्वतंत्रता पर संकट
यह निर्णय लोकतंत्र के चौथे स्तंभ—मीडिया—पर सीधा प्रहार
रायपुर :– ऑल मीडिया प्रेस एसोसिएशन के प्रदेश अध्यक्ष राजा राम यादव और सरगुजा संभाग अध्यक्ष अभिषेक सोनी ने संयुक्त बयान जारी किया कि छत्तीसगढ़ सरकार के चिकित्सा शिक्षा विभाग द्वारा राज्य के शासकीय चिकित्सा महाविद्यालयों और संबद्ध अस्पताल परिसरों में मीडिया कवरेज पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय न केवल प्रशासनिक हलकों में, बल्कि पूरे जनमानस और पत्रकारिता जगत में भी व्यापक प्रतिक्रिया का कारण बन गया है। यह आदेश अपने आप में उस गहरी विडंबना को उजागर करता है, जहां एक ओर सरकार पारदर्शिता और जवाबदेही की बात करती है, वहीं दूसरी ओर वही सरकार मीडिया की आज़ादी को सीमित करने का प्रयास करती है।
इस फैसले को लेकर ऑल मीडिया प्रेस एसोसिएशन के प्रदेश अध्यक्ष राजा राम यादव और सरगुजा संभाग अध्यक्ष अभिषेक सोनी ने संयुक्त बयान जारी कर कड़ा विरोध जताया है। यह निर्णय लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया पर सीधा प्रहार है, यह मीडिया की स्वतंत्रता का हनन नहीं है, बल्कि सरकार की व्यवस्थागत विफलताओं को छिपाने का एक सुनियोजित प्रयास है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि मीडिया सेंसरशिप के पीछे की मंशा यह है कि अस्पतालों में व्याप्त अव्यवस्थाएं, संसाधनों की कमी, डॉक्टरों की अनुपलब्धता और आम मरीजों की परेशानियां सार्वजनिक ना हो सकें।
मीडिया हमेशा से ही जनहित के मुद्दों को उठाने का एक सशक्त माध्यम रहा है। अस्पतालों में मरीजों को हो रही परेशानियों, दवाइयों की कमी, भ्रष्टाचार अथवा लापरवाही जैसे विषय जब सार्वजनिक होते हैं, तो उसका सीधा लाभ आमजन को मिलता है, और व्यवस्थाओं में सुधार के लिए प्रशासनिक दबाव बनता है। ऐसे में मीडिया को अस्पताल परिसरों से बाहर रखने का फैसला यह संदेह पैदा करता है कि सरकार कुछ छिपाना चाहती है।
राजा राम यादव और अभिषेक सोनी ने इस निर्णय से उत्पन्न संभावित नुकसान की ओर भी संकेत किया। उन्होंने कहा कि जब मीडिया को अस्पतालों की स्थिति दिखाने से रोका जाएगा, तो समाज की सबसे कमजोर और ज़रूरतमंद आवाज़ें—जैसे कि गरीब मरीज, दूर-दराज से आए लोग, और व्यवस्था से जूझते नागरिक—अनसुनी रह जाएंगी। जब मीडिया पर प्रतिबंध सीमित है तो छत्तीसगढ़ में स्वास्थ्यता विभाग का हाल बेहाल है बावजूद प्रतिबंध के चिकित्सा शिक्षा विभाग द्वारा लगाए गए प्रतिबंध से स्वास्थ्य विभाग और आमजनता की पारदर्शिता कम हो जाएगी जिससे स्वास्थ्य विभाग का हाल और बेहाल होता चला जाएगा।
क्या चिकित्सा शिक्षा विभाग द्वारा मीडिया पर प्रतिबंध लगाना,मीडिया की आवाज दबाने का पहला कदम?
चिकित्सा शिक्षा विभाग ने भले ही ‘मरीजों की निजता’ या ‘अस्पताल की शांति’ जैसे कारणों का हवाला दिया हो, लेकिन इस तरह की कार्रवाई एक प्रवृत्ति की शुरुआत होती है। यदि इस पर सामाजिक और कानूनी रूप से सवाल नहीं उठाए गए, तो भविष्य में शिक्षा, प्रशासन, न्यायपालिका या अन्य सार्वजनिक क्षेत्रों में भी ऐसे प्रतिबंध लगाए जाएंगे। जब एक संवेदनशील क्षेत्र में मीडिया की आवाज बंद करने का अभ्यास सफल हो जाता है, तो आगे चलकर इसे और क्षेत्रों में लागू करना आसान हो जाएगा।
लोकतंत्र के संतुलन को बिगाड़ने वाला संकेत
लोकतंत्र में चार स्तंभ माने जाते हैं – विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया। यदि किसी एक स्तंभ को दबा दिया जाए, तो लोकतंत्र संतुलन खो देता है। मीडिया की आवाज को रोकना लोकतांत्रिक संरचना को कमजोर करने की दिशा में पहला स्पष्ट कदम है।भारत के संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, जिसमें प्रेस की स्वतंत्रता भी शामिल है। मीडिया पर इस प्रकार का प्रतिबंध इस मौलिक अधिकार पर सीधा हमला है। इसे अगर चुनौती नहीं दी गई, तो यह धीरे-धीरे और कठोर रूप ले सकता है।
ऑल मीडिया प्रेस एसोसिएशन ने इस आदेश को “असंवैधानिक” और “अलोकतांत्रिक” करार देते हुए कहा कि सरकार लोकतांत्रिक मूल्यों से भटक रही है। एक ओर सरकार ‘जनभागीदारी’ और ‘सार्वजनिक जागरूकता’ की बात करती है, वहीं दूसरी ओर जनसंचार के सबसे प्रभावी माध्यम को ही निष्क्रिय करने की कोशिश कर रही है।
क्या निजता की आड़ में दबाई जा रही है सच्चाई?
सरकार द्वारा दिए गए तर्कों में से एक यह है कि मीडिया कवरेज से मरीजों की निजता भंग होती है। यह एक गंभीर मुद्दा हो सकता है, लेकिन इसका हल मीडिया पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं हो सकता। गोपनीयता की रक्षा की जा सकती है—मीडिया को दिशा-निर्देशों का पालन करने को कहा जा सकता है, अस्पतालों में विशेष अनुमति प्रणाली लागू की जा सकती है, लेकिन इन सभी विकल्पों को दरकिनार करते हुए पूरी तरह से प्रतिबंध लगाना सरकार की मंशा पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है।
इस घटनाक्रम ने लोकतंत्र और प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर कई गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं। एक ओर जब देश भर में सूचना तक पहुंच और पारदर्शिता को बढ़ावा देने की बातें हो रही हैं, तब छत्तीसगढ़ में पत्रकारों की पहुंच पर प्रतिबंध लगाना दुर्भाग्यपूर्ण है। यह फैसला केवल मीडिया को नहीं, बल्कि हर उस नागरिक को प्रभावित करता है जो शासन की जवाबदेही चाहता है और जिसकी समस्याएं सार्वजनिक मंच तक पहुंचनी चाहिए।
यदि सरकार वास्तव में पारदर्शिता और जनकल्याण के सिद्धांतों पर कार्य कर रही है, तो उसे मीडिया के साथ सहयोग और संवाद का रास्ता अपनाना चाहिए—ना कि
दमन और सेंसरशिप का। अन्यथा यह निर्णय आने वाले समय में एक खतरनाक मिसाल बन सकता है, जिसमें लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को ‘नजरबंद’ कर दिया जाएगा।